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कविता

सज्जनों के लिए

राहुल देव


कुछ लोग होते हैं
जो कुछ नहीं करना चाहते
बैठ सकते हैं वे
भूखे-प्यासे भगवान भरोसे
देखते रहते हैं घर के छप्पर को
शायद कभी फटे;
तो कुछ लोग वैभवों में आकंठ डूबे रहते हैं
बेचारी लक्ष्मी !
सिसकती रहती इनके लाकरों में,
कुछ लोग न भोगी होते हैं न रोगी होते हैं
वे दोनों के बीच की कड़ी होते हैं
जो तेल देखते है
और तेल की धार देखते हैं
लेकिन हे सज्जनों !
इस मायालोक में
क्या कुछ असंभव भी बचा है
लूट लेंगे तुझे
नोच-खसोट डालेंगे
वहशी और भूखे इनसान रूप में छिपे भेड़िये
इसलिए देख संभल कर चलो
हाथी की तरह
नहीं तो जब दूध से जलोगे
तब छाछ फूँक फूँक कर पियोगे
निष्काम कर्म में संलग्नता ठीक है
संतुलित-श्रेष्ठ जीवन का अचूक फार्मूला है
ऐसा मैं नहीं गीता कहती है
मैं तो आगे सिर्फ इतना जोड़ता हूँ
सरलता के साथ-साथ
आपको युग का भी खयाल रखना चाहिए,
हे विचारकों !
में जानता हूँ तुम अपनी जगह पर सही हो
अपनी धुन के पक्के हो
लेकिन ये आईना है
हमारे चारों ओर का;
ज्यादा मत सोचो
वर्ना हो जाओगे उस पढ़कर लड़के की तरह
जिसके नयनदीप लालटेन हो गए हैं
मैं तुम्हें कोई कहानी नहीं सुना रहा
आपको मानवीयता के साथ-साथ
थोड़ी मात्रा में
दुनियादारी भी आनी चाहिए
बाकी सब ठीक है !!


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